Thursday, 8 October 2015

ग़ज़लें -26 सितम्बर, 2015

ग़ज़लें -26 सितम्बर, 2015
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1.
मैं इधर चुप रहा, तू उधर चुप रहा
ज़ुल्म होता रहा, हर बशर चुप रहा
और भी हैं बहुत, काग इस बाग़ में
आपके हाथ का, क्यों हजर चुप रहा
काट दीं शाखें सब, आपने शौक़ में
अब न कह छाँव को, ये शजर चुप रहा
मंज़िलें थीं मगर , रास्ते खो गए
रहनुमा के बिना, हर सफ़र चुप रहा
आग सब बुझ गई, क़त्ल सब रुक गए
प्यार के सामने,  हर ग़दर चुप रहा
मायने:- बशर-इंसान, काग- कौआ, हजर-पत्थर , शजर-वृक्ष, रहनुमा-मार्गदर्शक, ग़दर-बग़ावत/ लूटमार।
2.
उसे ख़ोजने के लिए, क्या करूँ मैं
दिया बन गया हूँ , कि पल-पल जलूँ मैं
मेरा रब कहाँ है, कोई तो बता दे
धुँए की तरह , और कितना उड़ूँ मैं
मुझे ये नज़र हाय , किसकी लगी है
चलूँ दो कदम ,और फिर गिर पड़ूँ मैं
तेरी बेरुखी हो, तुझे ही मुबारक़
ख़ुशी हो कि ग़म हो, सदा ही हँसू मैं
न अब है मुहब्बत, न अब हैं वफ़ायें
मेरा है तर्ज़ुबा, हक़ीकत कहूँ मैं
तुझे हक़ यहाँ पे, न हरगिज़ मिलेगा
मेरी है हुकूमत, तेरी क्यों सुनूँ मैं
मुझे तो कहीं वो, दिखा ही नहीं है
दिखे जो कहीं तो, इबादत करूँ मैं
मायने- बेरुख़ी-विमुखता/उपेक्षा, तर्ज़ुबा-अनुभव, हुकूमत-सरकार/शासन , इबादत-उपासना ।

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