Saturday, 28 November 2015

ताज़ जिसको भी मिलेगा एक दिन

ताज़ जिसको भी मिलेगा एक दिन
फिर हवा में वो उड़ेगा एक दिन

बस अदब उसका यूँ ही करते चलो
काम तेरे वो करेगा एक दिन

डाल पे फल अपना पकने दो अभी
भाव उसका भी बढ़ेगा एक दिन

तू ज़रा नेकी का दामन थाम ले
साथ जग चलने लगेगा एक दिन

यूँ दरख़्तों को अगर काटोगे तुम
दम सभी का फिर घुटेगा एक दिन

ठोकरें उसको ज़रा खाने दे तू
घर को वो तब घर कहेगा एक दिन

क्या हुआ हारा ' मधुर' तू आज है
दौर तेरा भी चलेगा एक दिन

मायने: अदब-आदर/सत्कार, दरख़्त-पेड़

ज़हन में क्या घुल रहा आजकल

ज़हन में क्या घुल रहा  आजकल
ज़हर लफ़्ज़ों में मिल रहा  आजकल

गिला अब किसी ग़ैर से क्या करें
चराग़ों से घर जल रहा आजकल

रियाया को इतनी ख़बर ही नहीं
किसे उसका हक़ मिल रहा आजकल

सियासत तुझे होश भी है क्या
नशे में शहर चल रहा आजकल

जिसे प्यार में बाग़बाँ मिल गया
वही चेहरा खिल रहा आजकल

घटाओं से तेज़ाब गिरने लगा
 हरा रंग सब जल रहा आजकल

'मधुर' बेख़बर तू जिधर है खड़ा
महल कागज़ी हिल रहा आजकल

मायने- ज़हन/ज़ेह्न -सोच/चेतना, गिला-शिकायत, रियाया-प्रजा, बाग़बाँ-माली/बाग़ की देखभाल करने वाला

Sunday, 1 November 2015

मच्छर

मच्छर बैठा गाल पे, करता रहता प्यार
बार- बार बेकार है, गोरी की फटकार
गोरी की फटकार,लगी किन्तु वो न भागा
चिपट गया गाल से, सुई में ज्यों हों धागा
कहत मधुर देख यह,कि बाबा फूँको मंतर
बना दे इस मजनूँ को,एक छोटा सा मच्छर

Tuesday, 27 October 2015

कितनी पुड़िया खा रहा है फलाने के

कितनी पुड़िया खा रहा है फलाने के
सींक होता जा  रहा है फलाने के

पीना है तो रोज़ घी-दूध पी जम के
बीड़ी क्यों सुलगा रहा है फलाने के

मैंने तेरी कौन-सी भैंस खोली है
तू क्यों घुन्ना रहा है फलाने के

खेत को,खलिहान को छोड़ के तू रोज़
ताश क्यों खिलवा रहा है फलाने के

पहले तो घर-घूरा देखा नहीं अपना
अब क्यों पछता रहा है फलाने के

जी- हुज़ूरी करके तू एक लोफर की
नाक क्यों कटवा रहा है फलाने के

पूँछ तेरी दाब ली है किसी ने क्या
क्यों  गुलाटें खा रहा है फलाने के

हर कोई ही शेर है देख चंबल में
कौन पे भन्ना रहा है फलाने के

घर नहीं, जोरू नहीं, कुछ नहीं है पास
किस पे तू इतरा रहा है फलाने के

लेने के देने न पड़ जायें देख तुझे
क्यों उसे मिलका रहा है फलाने के

मालपूये ,खीर, बूँदी की सुन-सुन के
लार क्यों टपका रहा है फलाने के























Wednesday, 21 October 2015

उठो धरा के वीर-सपूतों, खाकी की शान बढ़ायें

उठो धरा के वीर-सपूतों, खाकी की शान बढ़ायें
कर्त्तव्य - पथ पे अनवरत,आगे हम बढ़ते जायें

डरे नहीं दुश्मन के आगे,लड़ के क़ुर्बानी  ठाने
देश का रक्षक हर पल अपना सीना  चौड़ा ताने
सब बाधाओं से डट के, अपना परचम लहरायें
उठो धरा के वीर-सपूतों, खाकी की शान बढ़ायें

अपने-पराये का भेद, न मन के अंदर उपजे
निष्ठा, त्याग, संकल्प का सिरमौर माथे पे सिरजे
छूते नहीं स्वाभिमान कभी भी, गौरव- गाथा दोहरायें
उठो धरा के वीर-सपूतों, खाकी की शान बढ़ायें
  
चोर-लुटेरों की गर्दन में, फंदा नागपाश का डालें
धूमिल कर दें  ज़ुल्मियत की, करतूतें और चालें
झिलमिल-झिलमिल न्याय का दीपक, नित हृदय में जलायें
उठो धरा के वीर-सपूतों, खाकी की शान बढ़ायें
 

Saturday, 10 October 2015

घर के बाहर कभी जब चला कीजिए

घर के बाहर कभी जब चला कीजिए
रुख़ पे पर्दा ज़रा-सा गिरा दीजिए

देखो मुझको लगेगा बहुत ही बुरा
हँस के यूँ तुम न सबसे मिला कीजिए

मैं लहर तुम समंदर मेरी जाने जाँ
मुझको ख़ुद से कभी मत ज़ुदा कीजिए

मेरी पहली मुहब्बत तुम्हीं हो सनम
तुम भी अपनी रज़ा अब बता दीजिए

हर ख़ुशी मैं पा लूँगा सुनो हमनफ़स
मुझको अपनी इनायत अता कीजिए

कोई अपनी ख़ताऐं अगर मान ले
उसको फ़ौरन गले से लगा लीजिए

ख़त्म होंगे ग़मों के फ़साने सभी
अपने रब पे यक़ीं तुम रखा कीजिए

मायने:- जाने जाँ- प्रेमिका, हमनफ़स- साथी, इनायत-कृपा, अता करना-प्रदान करना ।

दिल को मेढ़क-सा उछलते हुए देखा

दिल को मेढ़क-सा उछलते हुए देखा
करवटें यौवन को बदलते हुए देखा



चींटियाँ चुभती रहीं मेरी नस-नस में
 मीन को बिस्तर पे मचलते हुए देखा



अनछुये ही हाला को चख लिया सबने
साकी को झुक-झुक के चलते हुए देखा



लालिमा पड़ती गई गालों पे उसके
स्पर्श से मक्खन पिघलते हुए देखा



लाख फेरीं, पर  अटकती रहीं आँखें
पल्लू को पल-पल सँभलते हुए देखा



मुस्कुराये दो सुमन ओट ले-लेकर
चाँद की चिलमन को खुलते हुए देखा



होंठ टकराये तो ऐसा लगा हमको
जूस प्याले  से निकलते हुए देखा



मायने-  मीन-मछली, हाला-शराब,
साकी-शराब पिलाने वाली स्त्री, लालिमा-लाली, सुमन-फूल, चिलमन-खिड़कियों या दरवाजों पर बाँस का लगाया जाने वाला पर्दा ।

Thursday, 8 October 2015

वसंत आगमन पर एक घनाक्षरी छंद


वसंत आगमन पर एक घनाक्षरी छंद:-
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फागुन के बीतते ही, चैत मास लगते ही,
शिशिर सरकते ही, रितु रानी आती है ।
 विटप हरियाते हैं, विहंग हरषाते हैं,
कुसुम मुसकाते हैं, मही झूम जाती है ।

अमराई अँगड़ाये, पीतांबर लहराये,
खलिहान मुसकाये, पौन गीत गाती है ।
राग-रंग औ' उमंग,चढ़ जाये अंग-अंग,
मन में उड़े पतंग, प्रीत जग जाती है ।

रक्षाबंधन के संदर्भ में घनाक्षरी

रक्षाबंधन के संदर्भ में घनाक्षरी -मनोज शर्मा 'मधुर'
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हृदय में प्यार भर, नैनों में दुलार भर,
बहिनों ने ख़रीदी हैं,देखो आज राखियाँ ।
पावन मनोभाव से , मन के पूरे चाव से,
भइया भी ले आये हैं ,महँगी निशानियाँ ।।
 माथे पे तिलक कर , राखियों को बाँधकर,
भइया को खिलायेंगी,बहिनें मिठाइयाँ।
 चरणों को स्पर्श कर ,निशानियाँ भेंट कर,
भइया भी निभायेंगे, सारी ज़िम्मेदारियाँ ।।

रूठा है तुमसे जो उसको मनाइये ।

रूठा है तुमसे जो उसको मनाइये ।
बाँहों के झूले में लोरी सुनाइये ।
पहला-पहला प्यार कोई भूलता नहीं ,
जिसको दिल से चाहो अपना बनाइये

हिन्दी के ढ़ोल बजायें

हिन्दी के ढ़ोल बजायें (गीत)- मनोज शर्मा 'मधुर'
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उठो कलम के रहनुमाओं, मिलकर ज़ोर लगायें
नगरी-नगरी में हिन्दी के, आओ ढ़ोल बजायें

मम्मी, डैडी, अंकल, आंटी सब अंग्रेजी के रेले
 संस्कृति  की चूनर  से , जम के होली खेले 
हिन्दी की महत्ता का, जन-जन को पाठ पढ़ायें
उठो कलम के रहनुमाओं, मिलकर ज़ोर लगायें

रसवंती अपनी हिन्दी के, हम भूल रहे अफ़साने क्यों
पछुवा हवा के पीछे-पीछे,  बन बैठे दीवाने क्यों
स्कूलों में, कॅालेजों में,  फिर हिन्दी का अलख जगायें
उठो कलम के रहनुमाओं, मिलकर ज़ोर लगायें

हिन्दीवालों को क्या करना , क्या लिखा  अंग्रेजी में
अंग्रेजों का  जूता लटका, हमको दिखा  अंग्रेजी में
रंग-बिरंगे गमलों में नित, हिन्दी की पौध लगायें
उठो कलम के रहनुमाओं, मिलकर ज़ोर लगायें
 

ग़ज़लें -26 सितम्बर, 2015

ग़ज़लें -26 सितम्बर, 2015
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1.
मैं इधर चुप रहा, तू उधर चुप रहा
ज़ुल्म होता रहा, हर बशर चुप रहा
और भी हैं बहुत, काग इस बाग़ में
आपके हाथ का, क्यों हजर चुप रहा
काट दीं शाखें सब, आपने शौक़ में
अब न कह छाँव को, ये शजर चुप रहा
मंज़िलें थीं मगर , रास्ते खो गए
रहनुमा के बिना, हर सफ़र चुप रहा
आग सब बुझ गई, क़त्ल सब रुक गए
प्यार के सामने,  हर ग़दर चुप रहा
मायने:- बशर-इंसान, काग- कौआ, हजर-पत्थर , शजर-वृक्ष, रहनुमा-मार्गदर्शक, ग़दर-बग़ावत/ लूटमार।
2.
उसे ख़ोजने के लिए, क्या करूँ मैं
दिया बन गया हूँ , कि पल-पल जलूँ मैं
मेरा रब कहाँ है, कोई तो बता दे
धुँए की तरह , और कितना उड़ूँ मैं
मुझे ये नज़र हाय , किसकी लगी है
चलूँ दो कदम ,और फिर गिर पड़ूँ मैं
तेरी बेरुखी हो, तुझे ही मुबारक़
ख़ुशी हो कि ग़म हो, सदा ही हँसू मैं
न अब है मुहब्बत, न अब हैं वफ़ायें
मेरा है तर्ज़ुबा, हक़ीकत कहूँ मैं
तुझे हक़ यहाँ पे, न हरगिज़ मिलेगा
मेरी है हुकूमत, तेरी क्यों सुनूँ मैं
मुझे तो कहीं वो, दिखा ही नहीं है
दिखे जो कहीं तो, इबादत करूँ मैं
मायने- बेरुख़ी-विमुखता/उपेक्षा, तर्ज़ुबा-अनुभव, हुकूमत-सरकार/शासन , इबादत-उपासना ।

लम्हा-लम्हा खुल के हँसिये-हँसाइये

लम्हा-लम्हा खुल के हँसिये-हँसाइये
भूले-बिसरे सपने फिर से सजाइये
 प्यार का गारा लगा के हुज़ूर तुम
 रिश्तों के गिरते महल को बचाइये

खिलते किसी फूल को तोड़ा नहीं करते

खिलते किसी फूल को  तोड़ा नहीं करते
बहती नदी को यूँ ही मोड़ा नहीं करते
जो जी रहा है तुम्हारा नाम ले -लेकर
मँझधार के बीच में छोड़ा नहीं करते

ग़ज़लें - मनोज शर्मा 'मधुर'

ग़ज़लें - मनोज शर्मा 'मधुर'
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1.
प्यार की राह में, हमनशीं के लिए ,
आँख नम है, किसी की किसी के लिए ।


हर तरफ़, लौ जलाने से क्या फ़ायदा,
चाँद इक है, बहुत आशिक़ी के लिए ।


गुल वफ़ा के खिलें, हर जगह अब कहाँ,
प्यार कुछ भी नहीं मतलबी के लिए ।


क्या पता, कब कहाँ, इश्क़ दे दे दग़ा,
बावफ़ा याद है, ज़िन्दगी के लिए ।


वक़्त भर देता है, ज़ख़्म सारे हरे,
सोच मत, भूल से, ख़ुदकुशी के लिए ।


वो हँसी, वो ख़ुशी, हो गईं लापता,
अश्क़ हैं, बस बचे ज़िन्दगी के लिए ।


रंज़ है, ज़ख़्म है, सोज़ भी है ' मधुर'
और क्या चाहिए शायरी के लिए


मायने:- हमनशीं-साथ बैठने वाला/ दोस्त, बावफ़ा-वफ़ादार, रंज़-दु:ख, सोज़-जलन
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2.
बारहा यार को हम मनाते रहे,
उम्र यूँ दोस्ती की बढ़ाते रहे ।


एक हम हैं , मुहब्बत लुटाते रहे,
एक वो हैं , जो रिश्ते भुनाते रहे ।


इक ख़ता भी हमारी बताई नहीं,
बेवजह  वो सदा मुँह फुलाते रहे ।


धूप बन के कभी, छाँव बन के कभी,
शिद्दते इश्क़ वो आज़माते रहे ।


इश्क़ की जो क़िताबें थीं इस क़ल्ब में ,
हम पढ़ाते रहे, वो  छुपाते रहे ।


दोस्त हैं वो हमारे सुना था कभी,
इस भरम में रफ़ाक़त निभाते रहे ।


इश्क़ उनका 'मधुर' रास आया नहीं,
वस्ल से वो सदा जी चुराते रहे ।


मायने:- बारहा-बार-बार, शिद्दते इश्क़-इश्क़ की तीव्रता, क़ल्ब-हृदय, रफ़ाक़त-दोस्ती, वस्ल-मिलन
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3.
रूठा साहिल है, मैडमजी ।
जीवन मुश्किल है, मैडमजी ।


पलकों पे गुल, रख तो लेता,
चाहत बुज़दिल है , मैडमजी ।


पत्थर होता,  कोशिश करते,
वो तो जाहिल है , मैडमजी ।


तुम भी ठोकर मारो अपनी,
सज्दे में दिल है , मैडमजी ।

रेज़ा-रेज़ा, हँसता मुझपे,
कैसा क़ातिल है, मैडमजी ।


फिक़्र नहीं , कोई अपनों की,
कितना ग़ाफ़िल है, मैडमजी  ।


सोच 'मधुर' क्या होगा तेरा,
तेरी मंज़िल है, मैडमजी ।


मायने :-  साहिल-किनारा, जाहिल-अशिष्ट, सज्दा-ज़मीन पर सर रखे हुए, रेज़ा-टुकड़ा,  ग़ाफ़िल-संज्ञाहीन/ बेख़बर